हाई कोर्ट ओडिशा का अजीब फैसला ?

किसी अपराधी की सजा इस आधार पर कम नही की जा सकती है की वह दिन में कई बार नमाज पढ़ता है? भारतीय कानून व्यवस्था में, अपराधी की सजा उसके किए गए अपराध के प्रकार और गंभीरता पर निर्भर करती है। समाज में सुरक्षा और न्याय को महत्वपूर्ण मानकर, कई कानूनी प्रक्रियाएं हैं जो सुनिश्चित करती हैं कि सही सजा हो। हालांकि, किसी अपराधी की सजा प्रमुखत: उसके अपराधिक क्रियाओं पर होनी चाहिए, धार्मिक प्रथा से संबंधित होना उसके पुनर्विचार में महत्वपूर्ण होना चाहिए।

किसी अपराधी की सजा इस आधार पर कम नही की जा सकती है की वह दिन में कई बार नमाज पढ़ता है? भारतीय कानून व्यवस्था में, अपराधी की सजा उसके किए गए अपराध के प्रकार और गंभीरता पर निर्भर करती है। समाज में सुरक्षा और न्याय को महत्वपूर्ण मानकर, कई कानूनी प्रक्रियाएं हैं जो सुनिश्चित करती हैं कि सही सजा हो। हालांकि, किसी अपराधी की सजा प्रमुखत: उसके अपराधिक क्रियाओं पर होनी चाहिए, धार्मिक प्रथा से संबंधित होना उसके पुनर्विचार में महत्वपूर्ण होना चाहिए। वह भी तब जब वह छह साल की मासूम बच्ची से बलात्कार और हत्या का दोषी हो? धार्मिक गतिविधियों का अनुसरण करने के लिए दंड में कमी हो सकती है, लेकिन अपराध की सजा पर प्रभाव पड़ने के अन्य कारकों का भी महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में, बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों के मामले में समुचित सजा होनी चाहिए। यह सवाल इसलिए उठा क्योंकि ओडिशा हाई कोर्ट ने ऐसे अपराधी को मिली फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला है। हाई कोर्ट ने फैसले में मामले को इस आधार पर 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' नहीं माना कि 'वह (दोषी) दिन में कई बार भगवान से प्रार्थना करता है और वह सजा कबूल करने के लिए तैयार है, क्योंकि उसने खुदा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है'। केवल 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' मामलों में ही मृत्युदंड की सजा दी जा सकती है। हाई कोर्ट ने दोषी माना लेकिन सजा घटा दी ।

यह फैसला जस्टिस एसके साहू और जस्टिस आरके पटनायक की डिवीजन बेंच ने सुनाया. हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का फैसला बरकरार रखा जिसमें शेख आसिफ अली को बच्ची के रेप और मर्डर का दोषी करार दिया गया था। उसे आईपीसी की धारा 302/376 और POCSO एक्ट की धारा 6 के तहत दोषी पाया गया. ट्रायल कोर्ट ने इसे 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' केस मानते हुए अली को मृत्युदंड दिया। 2014 में जब अपराध हुआ, उस समय अली की उम्र 26 साल थी. हालांकि, हाई कोर्ट ने फैसले में कहा कि दोषी को मृत्यु होने तक जेल में रखा जाए, बेंच ने मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने को कई आधारों पर सही ठहराया, हाई कोर्ट ने कहा, 'वह (दोषी) एक पारिवारिक आदमी है, उसकी बुजुर्ग मां 63 साल की है और दो बहनें हैं जिनकी शादी नहीं हुई है। घर में कमाने वाला वही था और मुंबई में रंगाई-पुताई का काम करता था, परिवार की माली हालत ठीक नहीं है। हाई कोर्ट ने उसके परिवारिक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उम्रकैद में सजा की घोषणा की। इसके साथ ही, हाई कोर्ट ने कहा कि दोषी को मृत्यु होने तक जेल में रखा जाए।

भारतीय न्याय व्यवस्था में अभियुक्तों के अधिकारों और अभियुक्तों की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करने का एक लंबा इतिहास रहा है। न्यायालय ने अभियुक्तों की सुरक्षा और न्याय सुनिश्चित करने के लिए कई कानूनी प्रक्रियाएँ स्थापित की हैं।